कवि
बचपन में
फर्श और दीवारों पर
धूप की गिन्नियों को नाचते हुए देखता
तो ...
बड़ा मन होता कि उन्हें मुठ्ठियों में भींच कर काँच के मर्तबान में भर लूँ ...
देर रात जब सब सो जायें तो उनसे रजाई के भीतर गपियाते हुए सो जाऊं ...
लेकिन धूप की गिन्नियाँ थीं कि हर बार मुठ्ठी से फिसल जातीं ..
हारकर एक दिन मै उन गिन्नियों से बोला ..
यदि मै सच्चा हूँ तो मुझे वो हुनर दो कि मै तुम्हें सदा साथ रख सकूँ ...
तभी धूप की परी प्रकट हुई और बोली "तथास्तु "
और बड़ा होकर मै कवि बन गया .....
बैलाडीला ...
मै मजदूर हूँ बैलाडीला का
मै अपना पसीना मिटटी में
गिराता हूँ
और उसे लोहे की शक्ल में मिटटी से निकालता हूँ
तुम उसे गोलियों में ढालते हो ....
और जब मै लोहे का नहीं बस पसीने का मुआवजा
मांगता हूँ
तो तुम मेरा लौहा
ही मेरे सीने में उतार देते हो .....
चलो हमारे साथ .....
आईना मेरा था ...मगर सूरत बस्ती की थी
फूल मेरे थे .. मगर खुशबू गुलिस्ताँ की थी
छाले मेरे थे किन्तु उनमें दर्द ज़माने का था
सफ़र मेरा था ....लेकिन मंजिल
सबकी की थी
मै हैरान था ये कैसा अज़ाब
मुझपे नाज़िल है ...
तभी लुकाठी लिए एक सधुक्कड
मेरे पास आया और बोला
तुम अपना घर फूंक चुके हो
...
आओ अब ... हमारे साथ चलो.
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तेज़ाबी ख्वाब ...
****************************मै अकेला था और जुलूस मुझे घेर चुका था |
उन्होंने मुझे पकड़ा और नकली उत्तेजना के इंजेक्शन घोंप दिए |
नीम बेहोशी में मै उसे जोर जोर से गालियाँ बकने लगा जिसे मै जानता भी ना था |
हुकूमत यही करती है, जब उसके पास देने को कुछ नहीं होता
जंग का झूठा नारा दे देती है |
बागी होती भूख अपने ही ज़ख्मों को चाटने में मशगूल हो जाती है
और अपने ही खून से बहलकर सो जाती है |
फिर उसके मनोरंजन के लिए वही मुफ्त का तमाशा होता है
ऊँचे मचान पर शहंशाह बगलगीर होते हैं
कुछ गले मिले जाते हैं
कुछ गले काट लिए जाते हैं
पुते हुए सफ़ेद कबूतरों से आसमान भर जाता है
अगले साल फिर बारूद की बारिश होती है ....
मै सज्दे मै झुका अपनी बारी का इंतज़ार करता हूँ ||||.....
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मदद के लिये बढ़ा
वो हाथ
गरदन दबोचने के लिये बढ़े हाथ से भी खतरनाक था |
उसने गरदन बचायी ज़रूर
मगर उसमे अपने नाम का पट्टा डाल दिया |||
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मदद
गरदन दबोचने के लिये बढ़े हाथ से भी खतरनाक था |
उसने गरदन बचायी ज़रूर
मगर उसमे अपने नाम का पट्टा डाल दिया |||
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