3.14.2012

एक टूटी हुई नज़्म




                       एक टूटी हुई नज़्म


कच्ची मिट्टी के घरोंदे में होती है
जितनी नन्ही जान
उतनी ही नन्ही जान थी
 हमारे बहुत बड़े रिश्ते की
 हम अपनी चुटकी भर आँखों में
 दिल भर ख्वाब भरकर
 रात का समंदर पार करने उतरे थे.
.ख्वाब बहुत बहुत बड़े थे
आँख बहुत बहुत छोटी.
 ज़ाहिर है उन्हें छिटककर टूटना ही था
 और हमें चोंककर जगाना ही था
हमारी भी ज़िद थी
 फूलों की हथेली पर शबनम का घर घर बनाने की
 और आँधियाँ थी  कि अपने पुरज़ोर रुख़ पर  अड़ी थीं..
तुम चले तो गये थे रूठकर
 पर भूल गये थे
 कि जाने भर से कोई चला नही जाता
 यादों के दरिया की तलछट में
 कई ज़मानो तक महफूज़ रहता है
उसका चेहरा सारी शिकन के साथ....
आज जब मैं और तुम
 अलग अलग किनारों पर खड़े हैं
और हमारे दरमिया शिकवे का परनाला बेतहाशा बह रहा है
..एक बात कहूँ
.सच वो नहीं था
 जो हमें बाँटता था
 वो हमारे अपने अपने झूठ थे
 जो  भरोसे के सीनेपर दीवार की तरह खड़े थे
 और हम अपने अपने हिस्से की धूप के लिये
 आँखें मूंदकर अड़े थे.
                                         ..हनुमंत...



1 comment:

  1. और हम अपने अपने हिस्से की धूप के लिये
    आँखें मूंदकर अड़े थे.
    khoob

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