3.14.2012

मैं भी शरीके जुर्म था



     मैं भी शरीके जुर्म था


मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
 जिबह हो रही थी भेड़ें भेड़िया कर रहा था ईद
मंदिरो की घंटियों से घुट रही थी गर्भ गृह की चीख
 जल रही थी बस्तियाँ और मसीहा ले रहा था नींद
 ..हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
  मज़हब  की रहनुमाई कर रही तलवार थी
 मुल्ला के इशारे पर नाचती सेकुलर सरकार  थी
 जब मुट्ठी भींचकर चीखने की दरकार थी
..हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
 बढ़रही थी तोंद किसी की किसी की  गल रही थी हड्डियाँ
 तनरहा था तंबू किसी का किसी की फट रही थी चड्डिया
और मुँह  काला करके कलम जब गिन रही थी गॅड्डीया
. .हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली...
.दफ़्तरों की मेज़ पर फाइलों की धाक थी
आँकड़ो के व्यूह में योजना सब चाक थी
सुविधा की चौखट रगड़ती संघर्ष वाली नाक थी.
. .हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
. क़ानून की दहलीज पर दम तोड़ता इंसाफ़ था
सबसे गंदा हाथ सबसे पाक सबसे साफ था
 मेरी खामोशी के चलते बस्ती का क़ातिल .माफ़ था
.हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
. पर.ना चीखती ना कुछ बोलती ये क़ौम क्यों खामोश है?
.वक़्त की धारा बदल दे चीख में वो जोश है
  शरीके जुर्म व्रर्ना क़ौम है गर क़ौम नज़रेंफेर ले
                                   हनुमंत  
मुरेना में आई पी एस अफ़सर की खनन माफिया द्वारा की गई हत्या के विरुध एक बयान


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