चर्चित कवितायें : अमर राग / मेरे समय के नायक /शरीक़े जुर्म // न्याय का देवता

      


                  तुम जीवन का अमर राग
[ प्रो.आदित्य प्रताप सिंह  हिंदी के उन विरलतम रचनाकारों में हैं  जो  हिंदी के बाहर भी जाने और माने जाते हैं | 
उनके हायकू जापान ,कोरिया सहित यूरोपीय देशों में भी अपनी जगह रखते हैं | रचना की आग ,सूरज आवाज़ देता है , माचिस की आँख  उनकी रचनात्मकता का आख्यान हैं| प्राची औ प्रतीच का साधक  उन पर अभिनन्दन ग्रन्थ है | यह कविता उनकी उपस्थिति में उपलब्ध  जीवन रस का शेष  रह गया स्वाद है ]


वो चला गया तो 
पता चला
जाना कैसा होता है लाफिंग बुद्धा का |
उत्तुंग अभिमान सी विकसी
नाक उसकी
वो उठी उठी
सूक्ष्म बेध को आतुर
माचिस की आँख
छोटी मगर पैनी पैनी |               
ज्ञान समुद्र में
डोलता फिरता
वह कद्दावर सुदर्शन सुमेरु
विलग गया बैरागी हँसा सा |
 प्राची औ प्रतीचि"
 के  संधि स्थल पर
 वह था
सूरज आवाज़ देता
लुटता ज्ञान रश्मियाँ
हिंदी हायकू की |
वो जितना भूमिगत था
रचना की आग 
थी उतनी ही  नभ चुम्बी |
चिर अलाव सी धधकती
मुहावरेदार गप्पें |
भादों की रात आसमान में
हँसती तारों की तलैया सी
बतकही |
काल  को कँपाती  
दिल खोल हँसी
जैसे मकई के दाने
उछल उछल खिलते  हो
भड़भूजे के गर्म तवे पर |
हाय माटी से विकसा माटी हो गया  सब |
ओ मेरे तुम
मेरे मन के सिरजनहार
वो कुम्हार सी थाप तुम्हारी याद रहेगी  
तुम ना होगे तो क्या?
साथ , तुम्हारी बात रहेगी |
तुम रमते हो हर आशावादी मन में
हर तानाशाही के विरुद्ध
हर नव साम्यवादी जन में |
नव कोपल जब जब निकसेगी
तुम ही निकसोगे
नव कोयल जब जब गायेगी
तुम ही गाओगे
तुम जीवन का अमर राग
तुम को ही गायेगें
तुम को ही पायेगें
जीवन की हर गति में |





                    मेरे समय के नायक

                                                                                                                        
 मेरे समय के नायक
मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
तुम धीर हो
ललित हो
उदात्त हो
हर खेल में निष्णात हो

प्रसन्न चित्त हो
प्रसन्न वदन हो
सुर पूजीत  हो
अप्सरा का स्वप्न हो
यह और बात कोई ना देगा मेरा साथ पर में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
बेहद चमकीले बेहद भड़कीले
पास तुम्हारे सभी खिलोने
फिर क्यों ललचाते गुड्डे गुड़िया टूटे फूटे आधे पौने
सारे मारक संहारक शस्त्र तुम रखे सिरहाने
फिर निशस्त्र निडर क्यों लगते हैं तुम्हे डराने
 जादूगर
मारीच मायवी
तुम्हारी भव्य लक दक की जै हो जै हो
किंतु मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
भीषण शोर उठाता
वो रथ जिस पर तुम बढ़े  रहे
भीम पठारों को भी तोड़ रहा है
पर देखो तो पीछे मुड़कर
वो लकीर खून  की छोड़ रहा है
 धृतराष्ट्र
बंद करो यह आलिंगन
जो हड्डी हड्डी तोड़ रहा है
तुम जितने उजले हो
भीतर से उतने ही मैले हो
 छलिया मोहन मधुकर
चूमा तुमने जिन जिन जगहों पर
नील पड़ गये
तुम बेहद उँचा सुनते हो
उँचा कहते हो
देख नही पाते अपनी छाया से आगे
उस पर भीषण सज धज 
जो बढ़ती  जाती हर घटी पल
तिस पर   बडे शूरामा कवि चिंतक
नाच रहे सब धिन तक धिन तक
मैं आश्वस्त नही हूँ कुछ कर पाउँगा
पर जहाँ जहाँ तुम को पाउँगा
दोहराउंगा  दोहराउंगा
में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ...

                                                                  ..हनुमंत


                                          



इस समय में

मेरा नहीं है
फिर भी मेरी छाती पर
पीपल की तरह उगा है मेरा समय  |
उसके धड़ के ऊपर
एक पहाड़ है पूरा
ब्योरौं ,महीन ब्योरौं, महीनतर ब्योरौं  का |
पहाड़ के नीचे धुकधुकाती धुक्धुकियाँ लापता है यहाँ
जो यहाँ दाखिल दर्ज  नहीं है
वो खारिज़ है यहाँ  |
इस समय के सीने में
दिल नहीं
धड़कता है सिर्फ सोना
बेशुमार और बेकार की लिजलिजी ख्वाहिशें दौडती है इसकी शिराओं में |
रीढ़ की जगह
समझौतों और चालाकियों का लचकदार मज़बूत गठजोड़ है |
एक विशाल दैत्य
लाशों पर पाँव धरते
चढता जाता है स्वर्ग की सीढियाँ
स्वर्ग जिसकी दिशा पाताल के ओर मुड़ती जाती है |
समय जिसमे
ज्यों ज्यों सिकुड़ता जाता है यथार्थ
त्यों त्यों बड़ी होती जाती है उसकी परछाई |
मैं इस समय से
माँगता हूँ
फेफड़े भर हवा
और स्वाद भर नमक |
मैं  जिंदा हूँ
इस समय में
तो इसलिए कि
मिट्टी में अभी भी सना है पसीना
और हवा में बची है नमी |
                                              हनुमंत


 मैं भी शरीके जुर्म था

मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
जिबह हो रही थी भेड़ें भेड़िया कर रहा था ईद
मंदिरो की घंटियों से घुट रही थी गर्भ गृह की चीख
जल रही थी बस्तियाँ और मसीहा ले रहा था नींद
हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
मज़हब  की रहनुमाई कर रही तलवार थी
धर्म के ढोल पर पर नाचती सेकुलर सरकार  थी
जब मुट्ठी भींचकर चीखने की दरकार थी
हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
बढ़ रही थी तोंद किसी की किसी की  गल रही थी हड्डियाँ
 तनरहा था तंबू किसी का किसी की फट रही थी चड्डिया
और मुँह  काला करके कलम जब गिन रही थी गॅड्डीया
हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली...
दफ़्तरों की मेज़ पर फाइलों की धाक थी
आँकड़ो के व्यूह में योजना सब चाक थी
सुविधा की चौखट रगड़ती संघर्ष वाली नाक थी.
हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
क़ानून की दहलीज पर दम तोड़ता इंसाफ़ था
सबसे गंदा हाथ सबसे पाक सबसे साफ था
मेरी खामोशी के चलते बस्ती का क़ातिल .माफ़ था
हाँ  मैं भी शरीके जुर्म था जब मैने नज़रें फेर ली
पर.ना चीखती ना कुछ बोलती ये क़ौम क्यों खामोश है?
वक़्त की धारा बदल दे चीख में वो जोश है
 शरीके जुर्म व्रर्ना क़ौम है गर क़ौम नज़रेंफेर ले
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न्याय का देवता
ज़मीन से तीन फुट उपर
मंचस्थ है न्याय का देवता
झुका हुआ माथ /
मुंदी हुई आँख
हाथ पाँव सिकोडे /
अपनी ही खोल में गोल गोल
अनहद नाद में ब्रह्मलीन /
निरगुन निराकार
जगत गति से अव्याप्त /
क्रोध करुणा से निर्विकार
अपने ही अंतरलोक में मगन मस्त है
न्याय का देवता.....|

बज रहें हैं शंख ,घंट घड़ियाल
हो रही है आरती
चालीसा..जै जैकार
भक्त गण कर रहें हैं पाठ /
पुरोहित मंत्रोच्चार
आचार्य कर रहें हैं टीका
जिसमे है जितनी श्रद्धा शक्ति
टीका उतनी ही सटीक है उसकी
उधर फाइलों में मकड़ियाँ बुन रही है जाल
बुलडॉग बहा रहे हैं लार
कसाई तेज़ कर रहें है चाकुओं की धार
बाहर सजी हुई दुकानों में किश्तो में कट रहा है न्याय
नीलामी में बिक रहा है न्याय
पर ना कुछ बुरा देखता
ना कुछ बुरा सुनता
ना कुछ बुरा बोलता
अपनी ही मस्ती में मगन मस्त है
न्याय का देवता..
ध्यान मुद्रा मे वह दे रहा है
साम्या, शुद्ध अंतः करण की सीख
कि अचानक कहीं से चीर जाती है कोई चीख
बिखर जाता है ध्यान
उचट जाती है योग निद्रा
जागना ही पड़ता है न्याया के देवता को
धरा को अन्याय संतप्त पाकर
आँखो में उतार आता है खून
फड़कने लगती है भुजा
संभवतः अब होगा दीन हीन का त्राण /
नही बचेगें पापियों के प्राण
खंड खंड होगें पाखंड युधिष्ठिरो के ...
भाँपकर मंतव्य
देखकर भवित्वय
पुरोहित कर देते हैं सारा प्रबंध
कातर भेड़े बाँध दी जाती हैं न्याय की खूंटीयों से
मंत्रों की हुंकार मे घुट जाता है भेड़ो का चीत्कार
नर्म नर्म भेडों का गर्म गर्म लहू पीकर
स्वस्थ तन मुदित मन होता है न्याय का देवता
धरा घोषित कर दी जाती है पाप मुक्त
फहरा दी जाती है न्याय पताका
फिर मिटाने को अपनी देह की थकान
वह अंतःपुर को करता है प्रस्थान..
करते हुये प्रस्थान दे जाता है निर्देश
अत्याचारी दुहराते रहें सदाचार का पाठ
बलात्कारी हर स्त्री को समझें अपनी माँ
राजमार्ग मिलता रहे गांधी मार्ग से
गोली और डंडे बने रहे देशभक्त जनसेवक
अंतःपुर से उसके दुबारा मंचस्थ होने तक ||||

         
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