2.03.2017

दूब एवं अन्य कवितायें

१)
चेतावनी ...
******************
इसके पहले कि मैं तुम्हारी शराब में मक्खी की तरह गिरूँ
और नशे को बेमज़ा कर दूँ
मुझे पागल करार दो और गोली मार दो |
तुम्हारे बुत बेहद शानदार सही ले
किन मै उनके सज़दे में ना झुक सकूंगा
हाँ मैं कहूँगा ...
कि मुझे बेहद मोहब्बत है उन उँगलियों से जिन्होंने तराशा है इन्हें
रहल पर रखी किताबों को हटा लो
कि वे सडांध मारती रद्दी में बदल चुकी हैं
तुमने जो ज्ञान मुझे घुट्टी में पिलाया है
मेरी अंतडियों में अधपचा होकर मरोड़ पैदा करता है
और मुझे बेहद घिन छूटती है ...
जब मै किसी भूखे की आँख में ,खुद को बर्गर ले लिए मुँह फाड़े देखता हूँ
इसके पहले कि मैं तुम्हारे सजे हुए दस्तरखान पर उल्टियाँ कर दूँ
मुझे पागल करार दो और गोली मार दो ||
२)
ओ मेरे समय के नायक
+++++++++++++++
ओ मेरे समय के नायक
मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
तुम धीर हो
ललित हो
उदात्त हो
हर खेल में निष्णात हो
प्रसन्न चित्त हो
प्रसन्न वदन हो
सुर पूजीत हो
अप्सरा का स्वप्न हो
यह और बात कोई ना देगा मेरा साथ पर में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
बेहद चमकीले बेहद भड़कीले
पास तुम्हारे सभी खिलोने
फिर क्यों ललचाते गुड्डे गुड़िया टूटे फूटे आधे पौने
सारे मारक संहारक शस्त्र तुम रखे सिरहाने
फिर निशस्त्र निडर क्यों लगते हैं तुम्हे डराने
ओ जादूगर
मारीच मायवी
तुम्हारी भव्य लक दक की जै हो जै हो
किंतु मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
भीषण शोर उठाता
वो रथ जिस पर तुम बढ़े आ रहे
भीम पठारों को भी तोड़ रहा है
पर देखो तो पीछे मुड़कर
वो लकीर खून की छोड़ रहा है
ओ धृतराष्ट्र
बंद करो यह आलिंगन
जो हड्डी हड्डी तोड़ रहा है
तुम जितने उजले हो
भीतर से उतने ही मैले हो
ओ छलिया मोहन मधुकर
चूमा तुमने जिन जिन जगहों पर
नील पड़ गये
तुम बेहद उँचा सुनते हो
उँचा कहते हो
देख नही पाते अपनी छाया से आगे
उस पर भीषण सज धज
जो बढ़ती जाती हर घटी पल
तिस पर बडे शूरामा कवि चिंतक
नाच रहे सब धिन तक धिन तक
मैं आश्वस्त नही हूँ कुछ कर पाउँगा
पर जहाँ जहाँ तुम को पाउँगा
दोहराउंगा दोहराउंगा
में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ...||
३)
न्याय का देवता
+++++++++++++
ज़मीन से तीन फुट उपर
मंचस्थ है न्याय का देवता
झुका हुआ माथ /
मुंदी हुई आँख
हाथ पाँव सिकोडे /
अपनी ही खोल में गोल गोल
अनहद नाद में ब्रह्मलीन /
निरगुन निराकार
जगत गति से अव्याप्त /
क्रोध करुणा से निर्विकार
अपने ही अंतरलोक में मगन मस्त है
न्याय का देवता.....|
बज रहें हैं शंख ,घंट –घड़ियाल
हो रही है आरती
चालीसा..जै जैकार
भक्त गण कर रहें हैं पाठ /
पुरोहित मंत्रोच्चार
आचार्य कर रहें हैं टीका
जिसमे है जितनी श्रद्धा शक्ति
टीका उतनी ही सटीक है उसकी
उधर फाइलों में मकड़ियाँ बुन रही है जाल
बुलडॉग बहा रहे हैं लार
कसाई तेज़ कर रहें है चाकुओं की धार
बाहर सजी हुई दुकानों में किश्तो में कट रहा है न्याय
नीलामी में बिक रहा है न्याय
पर ना कुछ बुरा देखता
ना कुछ बुरा सुनता
ना कुछ बुरा बोलता
अपनी ही मस्ती में मगन मस्त है
न्याय का देवता..
ध्यान मुद्रा मे वह दे रहा है
साम्या, शुद्ध अंतः करण की सीख
कि अचानक कहीं से चीर जाती है कोई चीख
बिखर जाता है ध्यान
उचट जाती है योग निद्रा
जागना ही पड़ता है न्याया के देवता को
धरा को अन्याय संतप्त पाकर
आँखो में उतर आता है खून
फड़कने लगती है भुजा
संभवतः अब होगा दीन हीन का त्राण /
नही बचेगें पापियों के प्राण
खंड खंड होगें पाखंड युधिष्ठिरो के ...
भाँपकर मंतव्य
देखकर भवित्वय
पुरोहित कर देते हैं सारा प्रबंध
कातर भेड़े बाँध दी जाती हैं न्याय की खूंटीयों से
मंत्रों की हुंकार मे घुट जाता है भेड़ो का चीत्कार
नर्म नर्म भेडों का गर्म गर्म लहू पीकर
स्वस्थ तन मुदित मन होता है न्याय का देवता
धरा घोषित कर दी जाती है पाप मुक्त
फहरा दी जाती है न्याय पताका
फिर मिटाने को अपनी देह की थकान
वह अंतःपुर को करता है प्रस्थान..
करते हुये प्रस्थान दे जाता है निर्देश
अत्याचारी दुहराते रहें सदाचार का पाठ
बलात्कारी हर स्त्री को समझें अपनी माँ
राजमार्ग मिलता रहे गांधी मार्ग से
गोली और डंडे बने रहे देशभक्त जनसेवक
अंतःपुर से उसके दुबारा मंचस्थ होने तक ||
४)
इस समय में
++++++++++
मेरा नहीं है
फिर भी मेरी छाती पर
पीपल की तरह उगा है मेरा समय |
उसके धड़ के ऊपर
एक पहाड़ है पूरा
ब्योरौं ,महीन ब्योरौं, महीनतर ब्योरौं का |
पहाड़ के नीचे धुकधुकाती धुक्धुकियाँ लापता है यहाँ
जो यहाँ दाखिल दर्ज नहीं है
वो खारिज़ है यहाँ |
इस समय के सीने में
दिल नहीं
धड़कता है सिर्फ सोना
बेशुमार और बेकार की लिजलिजी ख्वाहिशें दौडती है इसकी शिराओं में |
रीढ़ की जगह
समझौतों और चालाकियों का लचकदार मज़बूत गठजोड़ है |
एक विशाल दैत्य
लाशों पर पाँव धरते
चढता जाता है स्वर्ग की सीढियाँ
स्वर्ग जिसकी दिशा पाताल के ओर मुड़ती जाती है |
समय जिसमे
ज्यों ज्यों सिकुड़ता जाता है यथार्थ
त्यों त्यों बड़ी होती जाती है उसकी परछाई |
मैं इस समय से
माँगता हूँ
फेफड़े भर हवा
और स्वाद भर नमक |
मैं जिंदा हूँ
इस समय में
तो इसलिए कि
मिट्टी में अभी भी सना है पसीना
और हवा में बची है नमी |
५)
इन्साफ
+++++++
वे जंगल की घुटी हुई चीखे थी
वे झुग्गी की दबी हुई आहें थी
उन्होंने सुना कि इन्साफ का कोई मंदिर है
वे राजपथ तक उसकी तलाश में चली आयीं..
उन्होंने कानून की जंजीर हिलाई...
“थोड़ा इंतज़ार करो..” दरवाजे के पीछे से कोई चिल्लाया...
इंतज़ार करते हुये उन्होंने जाना कि
“इन्साफ के लिए इंतज़ार एक यातना है ...नाइंसाफी से भी भयावह”
वे इंतज़ार की यातना में वापस लौट गयीं |
ख़ुफ़िया खबर है कि
जंगल में कही कुछ सुलग रहा है |
६)
आँसू..
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मेरी जाँ..
वो आँसू
जो आँख की कोर पर ठहरा है
उसे अभी कुछ देर और ठहरे रहने दो ..
कि वो थरथराता है तो थरथराता है महाकाल |
सुनो .. अभी धरती तैयार हो रही है
कि जब तुम आँसू बोओगी
तो अँगार लहलहा उठेंगे ..|||
७)
चीख
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वो चीख जो तुम्हारे हलक में अटक गयी है ..
और कुछ देर उसे बाँधे रखो ...
कि उसे वापस मत लौटने देना |
तुम्हारे पड़ोस में आवाज का एक समंदर है
कि जिसे जगने के लिए ...
तुम्हारी चीख का इंतज़ार है ....|||
८)
वे लौटेंगे
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पोखर में पानी नहीं रहा
तो ऐसा नहीं कि मछलियाँ नहीं रहीं |
पेड़ में पत्ते नहीं बचे
तो ऐसा नहीं कि परिंदे नहीं बचे |
तुमने जो बस्तियाँ उजाड़ दी
तो लोग उजड़े ज़रूर , मगर खत्म नहीं हुये |
कल बारिश के साथ
मछलियाँ लौट आयेंगी
पत्ते लौट आयेंगे
परिंदे लौट आयेंगे
...और वे भी जिन्हें उजाड़ दिया गया था |
पर इस बार वे टिड्डी दल की शक्ल में लौटेंगे
सब कुछ चट करते हुये ||
आज तुमने जिनके साथ न्याय नहीं किया
कल उनसे न्याय की उम्मीद मत करना ||||
९)
जुर्म और सज़ा
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मेरी सज़ा मुकर्र हो चुकी है
ज़ल्लाद ने अपनी मूँछ तेल से भिगो ली है
मेरा जुर्म था कि मेरी जेब से कुछ सवाल ज़ब्त हुए थे |
हालाँकि सवालों को उछालने लायक हिम्मत उन्हें बरामद नहीं हुई |
इसलिए मेरी सज़ा में कुछ नरमी बरती गयी
मुझे चौराहे पर संग सार नहीं किया जायेगा ,
मुझे एक आरामदेह मौत मारा जायेगा |
..... साथियों जाते हुए मैं ये सवाल तुम्हारे नाम वसीयत करता हूँ
तुम्हें पता है
जब कोई सवाल उछाला जाता है
तो खिड़कियों के काँच नहीं टूटते
एक सन्नाटा टूटता है
और ये भरम भी कि
हम कभी कुछ नहीं तोड़ सकते ||
१०)
तेज़ाबी ख्वाब ...
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मै अकेला था और जुलूस मुझे घेर चुका था |
उन्होंने मुझे पकड़ा और नकली उत्तेजना के इंजेक्शन घोंप दिए |
नीम बेहोशी में मै उसे जोर जोर से गालियाँ बकने लगा जिसे मै जानता भी ना था |
हुकूमत यही करती है, जब उसके पास देने को कुछ नहीं होता
जंग का झूठा नारा दे देती है |
बागी होती भूख अपने ही ज़ख्मों को चाटने में मशगूल हो जाती है
और अपने ही खून से बहलकर सो जाती है |
फिर उसके मनोरंजन के लिए वही मुफ्त का तमाशा होता है
ऊँचे मचान पर शहंशाह बगलगीर होते हैं
कुछ गले मिले जाते हैं
कुछ गले काट लिए जाते हैं
पुते हुए सफ़ेद कबूतरों से आसमान भर जाता है
अगले साल फिर बारूद की बारिश होती है ....
मै सज्दे मै झुका अपनी बारी का इंतज़ार करता हूँ ||
११)
प्रेम को पंथ कराल महा
+++++++++++++++++
सुनो ऋतम्भरा
ना नदी
ना फूल
ना चाँद
ना हीरा
ना मोती
तुम्हारा प्रेम
जूता है ..
जिसके भरोसे कर पाया हूँ पार
सभी खोह-खड्ड-खाई,
राह कितनी भी कठिन |
लम्बे सफ़र के बाद
जूता अब फट गया है
कुछ इधर से कुछ उधर से |
आओ ..
तुम ज़रा इसकी मरम्मत कर दो
मै ज़रा इसका सज़्दा कर लूँ ||
सुनो ऋतम्भरा
ना तितली
ना पराग
तुम्हारा प्रेम
मधुमक्खी है ...
हँसकर डंक सहता हूँ
शहद..,
जो बदले में मिलता है |||
सुनो ऋतम्भरा
मन मुकुर में जम गयी है मैल ,
प्रेम राख से मांजो ज़रा इसको |
कि चम-चम चमचमा उठे
दिप-दिप दिपदिपा उठे
जगत विच छवि हमारी ||
12)
फूल हैं भटकटैया के ......
किसी गमले के गुलाम नहीं
बंधुआ नहीं किसी बागीचे के
गेंदा गुलाब जूही सेवंती
हम नहीं राग जै जैवन्ती
हम पगडंडियों के आज़ाद मुसाफिर हैं
हम फूल हैं भटकटैया के ....
खिलाना होगा तो घूरे में खिल जायेंगे
उदासी का विलोम बन जायेंगे
हम वसंत रचते हैं वीराने में
कोई फर्क नहीं पड़ता आने जाने में
फूलों में जाति बाहर हैं ..लेकिन कबीर के वंशज हैं
हम फूल हैं भटकटैया के ....|
देवता के मुकुट में ना सोहेंगे
मुर्दों के गले लगकर ना रोयेंगे
किसी के तैलौंछ बालों को ना सूघेंगे
धूल सने बच्चों के हाथों में झूमेंगे ...
हर गति में अमर ...
और हर हाल में मलंग मस्त हैं
हम फूल हैं भटकटैया के ....|
भू के भीतर का जब ईंधन चुक जायेगा
हम ही मोटर दौड़ायेंगे और विमान उड़ायेंगे ...
कोई फ़रियाद नहीं है जीवन रण में ....
हम बचे रहेंगे हर मुश्किल क्षण में
फूलों में सर्वहारा हैं ..
किन्तु किसी से हारे नहीं हैं
हम फूल हैं भटकटैया के ....||
13)
 पाँव
+++++++
तुम्हारे पाँव बहुत खूबसूरत हैं
मॅंड मार्वल पर नही
तुम रखती हो इन्हे खुरदुरी पथरीलीज़मीन पर
तुम्हारे चेहरे से नहीं
तुम्हारे पाँवो से खुलते हैं
तुम्हारी ज़िंदगी के राज़
जब कभी ज़िंदगी पे प्यार आता है
तुम्हारे पाँवो को चूमने का जी होता हैबहुत
.इन्हे देखकर ही समझ आता है
कि समय की शिला पर चेहरे नही,
बल्कि पाँव दर्ज़ होते हैं क्यों?
और कैसे कुछ चेहरों की कागज़ी खूबसूरती के लिये
क्यों बेहद बदसूरत होना पड़ता है कई कई पाँवों को ?
इनसे मिलती हैं मौसम की सब निशानदेही |
जैसे बिवाइयों की दरारों में छिपा होता है ठिठुरता माघ
और अँगुलियों के बीच ग़लती चमड़ी
गवाही देती है रसोई में घुसे बारिश के पानी की.. | |
फूटते हैं जब पाँवों के छाले तो
कुछ तो ठंडा जाती होगी
जेठ में धरती की तवे सी तपती पीठ |
तुम्हारे पाँव असमाप्त कविताएँ हैं
जो संघर्ष के एक सिरे से संघर्ष के दूसरे सिरे तकअविराम फैली हैं
यहाँ पड़ाव बस एक ही है जिसे मौत कहते हैं...
तुम्हारे पाँवो के जरिये कुदरत मौत का विलोमरचती है ....
मज़ाक में न लो इसे तो कहूँ
 ज़िंदगी पे जब भी प्यार आता है
इन्हे चूमने को जी होता है बहुत ||
१४)
बैशाखियाँ
++++++++
ग़लत कहते हैं लोग
कि इंसान को अपनी टाँगों पर खड़ा होना चाहिये,
बैशाखियों पर नहीं..
लोग ही रख देते हैं पालने में बैसाखियाँ
अपनी टाँगों पर खड़ा होना चाहता है जब बच्चा
थमा दी जाती हैं उसे बैशाखियाँ..
बैशाखी कब टाँग में, टाँग कब बैशाखी में बदल जाती है
पता ही नही चलता
चलते फिरते उठते बैठते सोते जागते
बैशाखी ही थामे रहती है उम्र भर
यहाँ तक की मरने के बाद बने मंदिरों में भी
पाँवों की जगह वे ही पूजी जाती हैं
जैसे बगैर लिबास के इंसान पागल क़रार दिया जायेगा
वैसे ही बगैर बैशाखी के बौना और लंगड़ा
वैसे ठीक ही है
बैशाखियों के साथ
टाँगो की तरह बीमार या बूढ़े होने का ख़तरा नही है..
सुविधनुसार बदला भी जा सकता है उन्हे…
स्वर्ण खचित
रत्न जडित
मंत्र पूरित बैशाखियाँ ही चतुष्टप पुरुषार्थ है अब
सबसे महान उँचाई पर स्थित मूर्तियाँ
बैशाखियों पर ही टिकी हैं ||
१५)
बैलाडीला ...
मै मजदूर हूँ बैलाडीला का
मै अपना पसीना मिटटी में गिराता हूँ
और उसे लोहे की शक्ल में मिटटी से निकालता हूँ
तुम उसे गोलियों में ढालते हो ....
और जब मै लोहे का नहीं बस पसीने का मुआवजा मांगता हूँ
तो तुम मेरा लौहा ही मेरे सीने में उतार देते हो .....
१६)
तेज़ाबी ख्वाब ...
****************************
मै अकेला था और जुलूस मुझे घेर चुका था |
उन्होंने मुझे पकड़ा और नकली उत्तेजना के इंजेक्शन घोंप दिए |
नीम बेहोशी में मै उसे जोर जोर से गालियाँ बकने लगा जिसे मै जानता भी ना था |
हुकूमत यही करती है, जब उसके पास देने को कुछ नहीं होता
जंग का झूठा नारा दे देती है |
बागी होती भूख अपने ही ज़ख्मों को चाटने में मशगूल हो जाती है
और अपने ही खून से बहलकर सो जाती है |
फिर उसके मनोरंजन के लिए वही मुफ्त का तमाशा होता है
ऊँचे मचान पर शहंशाह बगलगीर होते हैं
कुछ गले मिले जाते हैं
कुछ गले काट लिए जाते हैं
पुते हुए सफ़ेद कबूतरों से आसमान भर जाता है
अगले साल फिर बारूद की बारिश होती है ....
मै सज्दे मै झुका अपनी बारी का इंतज़ार करता हूँ ||||.....
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१७)
मदद
मदद के लिये बढ़ा वो हाथ
गरदन दबोचने के लिये बढ़े हाथ से भी खतरनाक था |
उसने गरदन बचायी ज़रूर
मगर उसमे अपने नाम का पट्टा डाल दिया |||
१८)
लाल गुड़हल
+++++++++++
मेरी उम्मीदों की
नब्ज़ डूब रही है
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि मेरे सपनों का रंग
धूसर हो जाये
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि प्रियजन
भोगे हुए नर्क के बदले
पुरूस्कार में
किसी मरे हुए स्वर्ग की कामना में
प्रार्थना में झुक जायें
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि मै
अनंत कालिमा में बदल जाऊं
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो ||
१९)
हमारे घरो की औरते
++++++++++++++++
एक
थकी हुई सुबह
एक
ऊबी उदास दोपहर
एक
लिथड़ी हुई सांझ
एक
टूटकर बिखरी रात
कविता में
ना सुनना चाहे तो
सीधे-सीधे कहूँ
" हमारे घरों की औरतों | "
२०)
गाय और गरीब
+++++++++++++
१)गाय थीं बेचारी
अन्त तक जान नहीं पायीं
कि वे गाय थीं |
उनकी पूछ पकड़
कोई वैतरणी पार उतरा
किसी ने बनाये
उनके गोबर से गणेश
उनके दूध से
खूब फला किसी का कारोबार
और
सियासत ने उनके मांस पर
खूब सेंकी अपनी रोटियां ...|
अंत में जब वे मरी
कुत्तो का पेट भर गयी |
गाय गरीब थी
गाय नहीं जान पायी
कि वो गरीब थी
जान तो
गरीब भी नही पाया
कि वो आदमी नही गाय था |||
२)
हम कृष्ण की गाय है
हम कसाई के खूंटे से बंधी है |
हम सोचती रहीं
हमे बचाने कोई कृष्ण आयेगा
हम बूढी और बीमार हो गयी
हमें बचाने
कोई कृष्ण नहीं आया
हमे बचाने
कोई कृष्ण नहीं आयेगा
ज़रा सुनो तो
बंशी का स्वर हमारे भीतर से उठ रहा है |
ज़रा इस स्वर को थामो
अब
जरा अपने
सींगो पर भरोसा करो
देखो
खूंटा हिल रहा |
बाड़े में
रंभाने की नहीं
हुंकार की आवाज भरती जा रही है |
बूढ़ा पीपल
काल को कांपते देख रहा है ||
२१)
वो इन दिनों
___________________
तुम उसे पहचान नहीं सकते
तुम्हे अपनी जानकी पटेल याद है ?
हाँ बोलने में हकलाती
चलने में शरमाती
वो लटके कंधो
झुकी निगाहों
लदर-फदर कपड़ो वाली
अपनी जानकी पटेल ...
वो जो
अंगुलियों के गुलेल में
सूरज को फंसाकर तान रही है
फुटबाल की तरह
पहाड़ो को पांवो से
उछाल रही है
सितारे तोड़कर
धरती पर दानो की तरह छींट रही है
समुद्र की तरह मचलती
और मलयानलि की तरह
दिक् दिगंत को जगाती
वो जो इधर चली आ रही है
वो वही जानकी पटेल है ..
जानकी पटेल इन दिनों प्रेम में है
और प्रेम बदल देता है
जैसे उसने बदल दिया
जानकी पटेल को....||
२२)
औरते और गुलाम
+++++++++++++++
मै दो हज़ार साल पहले यूनान में पैदा नहीं हुआ
मैने दो सौ साल पहले के अमेरिकी अश्वेत नहीं देखे
मुझे सौ साल पहले के हिन्दुस्तानी दलित का भी अनुभव नहीं है
लेकिन मैंने अपने घरों की शादीशुदा औरतों को देखा है
क्या मुझे कोई बतायेगा ,
ग़ुलाम और किस तरह के होते हैं ???
_________________________
आज के दिन भी ‘ वे’ पौ फटने के पहले उठीं
बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया
पति को बिस्तर पर चाय दी
और सब काम निपटाकर काम पर निकल गयीं
फिर काम से लौटी और काम पर लग गयीं |
आज के दिन भी ‘वे’ कोचिंग से आकर सीधे किचन में घुसीं
उधर भइया सौफे पर किताबे फेककर दोस्तों से मिलने निकल गया |
आज भी ‘वे’ आफिस, स्कूल, बाज़ार में अजीब तरह से घूरी गयीं
और निगाह बचाकर तेज़ी से निकल गयी |
आज के दिन भी वे दान की वस्तु समझा गयीं
और खानदान के सम्मान के लिये तहखाने में डाल दी गयीं |
आज के दिन भी उनका गर्भ में ही आखेट किया गया |
आज के दिन भी उन्होंने पति की झूठी थाली में ‘पुण्य’ की तरह खाया
और पति की लात को 'प्रसाद' समझकर चुप हो गयीं |
जब कभी आवाज़ उठी ,
उनकी बेड़ियों को खोलकर
उनके गले में हार की तरह डाला गया
और वे चौराहों पर स्थापित कर दी गयीं |
इस अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की चुसनी की जगह ,
संतरे की गोली दे दो
कम से कम स्वाद तो बदल जायेगा ||
२३)
भगत सिंह के नाम
++++++++++++++++++
१)...साथी ,
जिस उमर में तुम हमारे लिए फंदा चूम रहे थे...
उस उमर में
हम डेनिम जींस के लिये शो रूम की चौखट चूम रहे थे ...
लेकिन उससे भी बड़ा पछतावा यह है कि
हमने तुम्हारी शहादत को ‘पतुरिया’ बना दिया ..|
चूहों ने तुम्हारे नाम से ‘बिल’ बना लिये...
खेत ,खलिहान, नदी , जंगल , मैदान
सब खंखोल कर बेशर्मी का स्वर्ग बना डाला...
और स्वर्ग की चाभी को तिलस्मी खोह में छुपा दिया |
साथी ,
उस चाभी तक पहुँचने के लिये हम बारहा
तुम्हारी आत्मा को बूटों से रौंदते हैं |
....सुनो इसके पहले कि
हमारी जवानी शर्म से गल जाये
अपने हिस्से की थोड़ी अंगड़ाई हमें भी दे दो
कि हम कम अस कम करवट तो बदल लें |
_______________________________
२)
तुमने कहा था ..
" क्रान्ति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है "
साथी .........
तुम्हारे बाद ,तुम्ह्रारे नाम को उछालते हुए ,
कुछ बहुरूपिये बस्ती में घुसे
और 'विचारों की सान' को 'सत्ता की सान' से बदल दिया |
इस पर घिसी हुई 'क्रान्ति'
या तो राजधानी पहुँचकर कोठे की दल्ला हो गयी
या फिर जंगल पहुंचकर ,
अपनी ही बारूदी सुरंग में फंसकर अंधी ||
२४)
हम और वे
++++++++++++++
हम
लातिनी जंगलो में थे
हम
अफ्रीकाई मरुस्थलों में
हम
एशियाई खेतों-देहातों में थे
हम
दो टांगो पर
चलते दौड़ते कीड़े थे ..|
हम
धरती पर बोझ थे
भविष्य का संकट थे |
हमारी भूख
हमारी बीमारी
हमारा रोना
हमारा गाना
सबका सब खतरा था |
वे धरती के पुत्र थे
वे धरती के मालिक थे
वे साथ समंदर पार
श्वेत भवन में थे
वे विश्व बैंक की तिजोरियों में थे
वे व्यापार की गोल टेबल के चौगिर्द थे |
पेरिस ,जेनेवा ,रियो से उठकर
वे
धरती को
नारों के त्रिशूल पर उछालते हुए
जंगल-खेत -देहात पर छा गये |
धुएं का डर दिखाकर
उन्होंने हमारे चूल्हे बुझा दिये
आसमानकी छतरी में छेद दिखाकर
उन्होंने हमारे जानवर
हलाक़ कर दिये
और हमारे खेतो को
मशीन के जबड़े में डाल दिया
हमारे बीज हमारी खेती
हमारी दुनिया सब लूटकर
वे अपनी यू एस वी
अपने जम्बो जेट पर सवार
लौट गये..||
सालो बाद
हमारे खेत
हमारे जंगल
हमारी बस्ती
अब उनके थे..|
आप ये जो धरती के नीचे बिल देख रहे हैं
हमारे घर है |
और वो जो ड्रोन आप देख रहे हैं
उनके बम वर्षक है |
वे सच कहते हैं
अब हम छापामार नर भक्षी हैं,
जो वो
इतिहास में
सदा से रहे हैं ||
२५)
घर
++++
१)
बिना दीवारों का एक घर हो
दरवाजों की चौखट पर टिकी हो जिसकी छत
छत पर भी इतने हो दरवाजे
कि हर दरवाजा खुलता हो
एक नये तारे की सिम्त
बेरोकटोक आवाजाही हो हर मौसम की ...
कवि जब अपनी इस कल्पना में
गर्क था ..
फुटपाथ पर छितराया एक परिवार
उसकी इस मासूमियत पर
मुस्कुरा रहा था ||
२)
दर ओ दीवार से घिरी जगह
कुछ भी हो सकती है
कोई जेल
कोई बुतखाना
कोई सराय
यहाँ तक कि शौचालय भी ..
घर उस जगह को कहते हैं
जहाँ तुम आखिर में
थककर
हारकर
गलतियां कर लौटते हो
और वो तुमसे कोई सवाल पूछे बगैर
अपनी गोद में छुपा लेता है
उसकी थपकियाँ
तुम्हारी नींद की
पहरेदारी करती हैं ||..
३)
कुछ के हिस्से में घर था
घर से बहुत बड़ा
जहाँ वे
इबादत भी करते
तो गुनाह की तरह
बहुत कुछ के हिस्से
एक घर था
बेघर की तरह
जहाँ वे
गुनाह भी करते
तो इबादत की तरह ||.
४)
एक हम
कि जो अपनी पीठ पर
लादे फिरते हैं अपना घर
एक वो
कि जो खड़ा करता है अपना ताज महल
हमारी बस्ती के सीने पर ..||
५)
आज गोरया नहीं आई खिड़की पर
कबूतर ने नही सताया गुटरगू कर
बिल्ली ने नहीं जगाया कुछ गिराकर
छिपकली मकड़ी चूहे रहे हड़ताल पर
तुम्हारी याद ने नहीं रुलाया आ आकर
हाय ..
किसी संगी के बगैर
कितना गैर लगा अपना ही घर ...||
६)
उसने कहा
रोटी -कपड़ा और मकान
मैंने कहा
रोटी-कपड़ा और घर
वो नेता बन गया
मै लेखक ...
२६)
त से तीली
+++++++++
१)
एक रगड़ भर था हमारा तमाशा
भभके और बुझ गये |
रौशनी के साथ ही
हो गये धुँआ धुँआ
गर्द चिनगी हो गये
मसल दिए गये बूटों तले ..
खत्म होने से पहले
बिना उफ्फ किये
अपना सर्वस्व दे गये तुम्हे
कि रोशन रहें दिये
बूझें नहीं तुम्हारे चूल्हे
हमारा क्या ?
हम तो तीली थे
जले और बुझ गये |
यज्ञ के कथित पावन कुंड में
हमे नही मिली जगह
इतिहासवेत्ताओं ने
चकमक पत्थर के बगल में भी नही रखा हमें
किताबों में भी
अलाव और मशाल के साथ
हमे नही किया गया याद ...
तुम भूल गये
प्रमथ्यु ने
देवताओं से चुराकर
कहाँ छुपाई थी आग ..
किसी पवित्रआतिश दान में ?
किसी ताले तिज़ोरी में ?
नहीं हमारे दुर्बल दिखते सीने में |
हम तीली थे
हम निबल थे
लेकिन हमसे खेलते हुए
हमेशा रहना सावधान
कि जलते हुए
हम जला सकते हैं लंका
कि हम इतने निबल है इतने लुटे
कि खुद को खत्म करने के पहले
हमें सोचना नहीं होता
मिटना
हमारे लिए कभी महंगा सौदा नहीं रहा
तीली हैं हम
जले और बुझ गये
बुझने के पहले
लेकिन
अपनी आग सौंप गये कहीं और ||
२)
तीली
__________
उसके जलने का वक्त मुकर्रर है
वो सीली तीलियों के
सूखने का इंतज़ार नहीं कर सकता ..
उसके जलने के बाद
देर तक हवा में उसकी गंध
सीली तीलियों को
उनका फर्ज़ याद दिलाती रहेगी
अँधेरे में
हरे बांस के जंगल से बेहतर है
एक सूखी तीली होना ...
२७)
उन आँखों में
______________________
उदासी की आकाश गंगा
तैरती रहती है उन आँखों में
सर्द जमी झील में
मरी सी जान पड़ती मछलियाँ
सांस लेते ख्वाब है
बस इतने कि बचे हुए हैं बस ..
उन आँखों की गली के
एक छोर से बसंत घुसता है
तो दूसरे छोर से
पतझड़ बनकर
बह निकलता है
उसके चेहरे में आँख नहीं
आँख में कई चेहरे हैं ...
२८)
धुंध
++++
१ )
बड़ी घनी- गहरी थी धुंध
धुंध में सिर्फ एक धुंध ही दिखती थी
चाँद-सितारे-सूरज-आसमान
बस्ती-जंगल-पेड़-मकान
सब कायम थे अपनी जगह
लोग-लुगाई
दर्द-दवाई
सब पर छा गयी थी धुंध
अखबार में
एकमेव नायक-खलनायक-चरित्र-अभिनेता की तस्वीर थी
वही आल इन वन टीवी पर भी बहस के बीच था
उसी के अंध भक्तों से बजबजा रहा था सोशल मीडिया
यानी
धुंध में कुछ नहीं दिखता था
सिवाय धुंध के...
२ )
घनी-गहरी धुंध में
चमक रही हैं
लाल-हिंस्र आँखें
बचाव का बस एक ही उपाय है
अलाव को और तेज़ करो
चौकन्ने रहकर
धुंध छटने का इंतज़ार करो
२९)
लाल गुड़हल रख दो
+++++++++++++++
मेरी उम्मीदों की
नब्ज़ डूब रही है
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि मेरे सपनों का रंग
धूसर हो जाये
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि प्रियजन
भोगे हुए जीवित नर्क के बदले
पुरूस्कार में
किसी मरे हुए स्वर्ग की कामना में
प्रार्थना में झुक जायें
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो |
इसके पहले
कि मै
अनंत कालिमा में बदल जाऊं
मेरे सिरहाने लाल गुड़हल रख दो ||
३०)
नदी और समुद्र
+++++++++++
समुद्र
नदियों से मिलते वक्त
भूल जाता है
कि वो नदियों से मिलकर बना है
नदियाँ भी
समुद्र को इसकी याद नहीं दिलाती
वे इतनी ही ओछी होतीं
तो समुद्र ना हो गयी होतीं ..
३१)
शब्द और मौन
++++++++++
शब्द बहुत हैं
लेकिन जिन्हें हो
अर्थ की तलाश
वे मौन की तरफ जाये..
सिर
धारण करेगा
शब्दों के पहाड़
हृदय सम्भालेगा
मौन का आकाश ||
३२)
:चलना
++++++++
१)
चलना हमें कितना कुछ सिखा देता है
यही कि
सबसे पहले साधो संतुलन
फिर
एक ही समय में धरातल से जुड़े भी रहो
और हवा में उठे भी रहो ..
यही कि
एक के पीछे रहने पर ही
दूसरा आगे जा सकेगा
और
जो आगे गया
उसे और आगे जाने के लिए
पीछे को आगे करना होगा
यही कि
पीछे चलने के लिए भी
घुटने आगे ही मुड़ेगें
मनुष्य के लिए
चलना
क्रिया से पहले
एक विचार है ||
२)
पाँव
चलने के लिए हैं
ठोकरें लगाने के लिए नही..
ठोकरें लगाने वाले पांवो के
सज्दे में झुकी कौम
उस रेवड़ की तरह है
जो चलना तो जानती है
पहुंचना नहीं
३)
योगी ने पानी पर चलकर दिखाया
जादूगर ने हवा में चलकर दिखाया
देवताओं ने आकाश में चलकर दिखाया
बच्चे ने जब
जमीन पर चलकर दिखाया
तब रब मुस्कुराया ..
३३)
एब्सर्ड
+++++++
१)
पेड़ों पर
पत्तियों की जगह
मछलियाँ लटकी हुईं थीं ..
नदी के भीतर
मछलियों की जगह
पत्तियां मचल रही थीं ..
सब कुछ इतना एब्सर्ड था
कि पहचान पाना नामुमकिन
मै
ऐसे समय में जी रहा था
जिसकी शिनाख्त नहीं कर पा रहा था ||
२)
बड़ा एब्सर्ड समय था
मेरे बच्चों
सम्वेदना के उस भव्य समारोह में
सबने अपने थाल में सजा रखे थे नरमुंड
सबसे अधिक सुसज्जित नरमुंड
सबसे बड़े पुरूस्कार से हुआ सम्मानित
३४)
he और she
++++++++++++++++++
he दानिश था
उसने व्यथा को
क्लासिक पेंटिंग बना दिया .
she दीवानी थी
उसकी व्यथा ने
उसे कार्टून बना दिया...
he ने व्यथा को निवेश किया
जिसकी वापसी
पुरूस्कार में हुई
she ने व्यथा सारी
गुल्लक में जमा की
जब गुल्लक फूटा
वो तितली बनकर उड़ रही ....
३५)
he और she
++++++++++++++++++
he दानिश था
उसने व्यथा को
क्लासिक पेंटिंग बना दिया .
she दीवानी थी
उसकी व्यथा ने
उसे कार्टून बना दिया...
he ने व्यथा को निवेश किया
जिसकी वापसी
पुरूस्कार में हुई
she ने व्यथा सारी
गुल्लक में जमा की
जब गुल्लक फूटा
वो तितली बनकर उड़ रही .
३६)
ज़ंजीर
++++++
१)
ज़ंजीर
खोले जाने के बाद भी
वे आगे नहीं बढ़े
वे इतने सालो में
चलना भी भूल गये थे ..
२)
लोहे की
मोटी ज़ंजीर के बदले
सोने की
पतली ज़ंजीर से बचना
उसे तुम तोड़ सकते हो
इसे तुम
तोड़ना नहीं चाहोगे ...||
३७)
आँखें
-----------
तुम्हारी आँखे
जैसे रहल पर रखी
किताब का खुला पन्ना
या चाँदनी रात मे
समंदर की तरफ़ अधखुली
पुराने मकान की
की खिड़की कोई
तुम्हारी आँखें...
जिनमे हज़ार -हज़ार कंठ से
विदा का गीत झरता है
आँखों के रास्ते
कितने रिश्ते
अपनी उष्मा के साथ
हिम युग मे उतर आते हैं....
आँखों के रास्ते ही
मन जाने किस घाटी मे
जा फिसलता है...
प्रिय तुम्हारी आँखें
माँ की अँगुली की तरह
अधेड़ उम्र मे भी
चलना सीखा रही हैं...
नवजात बच्चे की
कुंवारी खुशबू की तरह
आँख बंद करने पर भी
महकती रहती हैं
तुम्हारी आँखें...
३८)
सुनो ऋतम्भरा
++++++++
१)
सुनो ऋतम्भरा..
उसे पाने के लिए
खुद को स्थगित मत करो
जो हो
वो होने से मत डरो ..
जो खुद को खोकर
दूसरे को पा भी ले
तो क्या देगा
सिवाय लिजलिजे समर्पण के ...
दरिया
बहना छोड़ दे
तो दलदल हो जाता है ..||
२)
सुनो ऋतम्भरा..
तुम खिलौना कांच का
उसके हाथ फौलादी
उसका दिल बहलना तय
जैसे तय तुम्हारी बर्बादी ..
३९)
तीन प्रहसन
++++++++++
१)
अब मुझे भी चलना चाहिए
मंच से उतर चुकी हैं लाइट्स
खीचे जा चुके हैं पर्दे
दर्शक दीर्घा की कुर्सियां उंघती हुई सोच रही हैं
कब हो अँधेरा
और वो भी नीद में उतार लें थकान
क्यों मुझे खड़े रहना चाहिए
कुछ और की प्रत्याशा में ?
अपनेआप से पूछता हूँ
और आप ही जवाब देता हूँ
कि अब ही खेले जाने हैं असली प्रहसन
अब ही जरूरत होगी
हवा में उछाले गये जूते की ..||
२)
सबके चले जाने के बाद
कितना कुछ बिखरा हुआ है ..
मंच पर इधर इधर
सभागार में भी
मूंगफली के छिलके
चाय-काफी के डिस्पोजल
आंसुओ से भीगे नैपकीन
हँसी की छोड़ी गयी पिचकारी
विचारों और बातों का उछिच्ष्ट
कितना कुछ बिखरा है ..
कौन कहता है सभागार खाली है
खाली तो अब करना है
ताकि कल नयी शुरुआत हो सके ... |||
३)
सबसे पहले वे निकल भागे
जिनके लिए सारा प्रहसन था
फिर निकल भागे वे
जिनका प्रहसन था
सबके जाने के बाद
अपनी मजूरी के लिए ठगे से बैठे हैं वे
जिनके नाम का प्रहसन था
उनसे कहो
अगले प्रहसन का इंतज़ार करें
मंच पर
उनकी पीड़ा को
पूरी शिद्दत से स्थान दिया जायेगा
४०)
दूब
+++
दूब के ऊपर
जैसे ही अपने चरण धरता हूँ
‘नवजात’ हो उठता हूँ |
किलोले भरते हुये हवा से होड़ करने का जी होता है |
टप्पे खाकर उछल-उछल जाता हूँ
मै इतना कोमल इतना भारहीन हो जाता हूँ ,
कि सम्वेदना के हलकी हिलोर से भी
काँप काँप उठता हूँ ||
________________
जो दबे होगें
जो कुचले हुए होंगे
हर हाल में ज़िंदा रहने की
अपनी ज़िद के चलते ,
अंत में वे ही बचे होंगे
मेरी ना मानो ,
तो ‘दूब’ को देख लो ....||
__________________
'दूब' एक पाठशाला है
जहाँ दो बाते आसानी से सीखी जा सकती है
'उम्मीद' और 'शराफत '
________________
दूब के ऊपर
जब भी कोई जूते पहन चलता है
लगता है उसे थोड़ी तमीज़ भी सीख लेनी चाहिये |
||हनुमंत किशोर ||

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