3.15.2012

बिगड़ा लड़का



                             बिगड़ा लड़का 1

बिगड़ा लड़का
अभी कुछ  दिन और
बड़ा नही होना चाहता था.
बना रहना चाहता था बिगड़ा ही
 लेकिन बड़ों की ज़िद थी
 कि उसे होना ही पड़ेगा बड़ा
अब वह नही रहा है लड़का
 बड़ों ने तंज़ कसे उसके बिगड़ने पर
 लड़के को भी अफ़सोस था
 बड़ों के  इतने बड़े होने का
बिगड़े लड़के को अपने
टूटे खिलोनों से था बेहद प्यार
..वे टूट चुके हैं,
इसे नही कर पाया  वह कभी स्वीकार
बहुत से दर्द थे जिन्हे वह बाँटना चाहता था
पर बड़े थे
कि आदी थे सिर्फ़ देने के
बड़ों ने लड़के को इस बचपने पर दिये उलाहने
 उसकी कमज़ोरी पर भेजी लानते
ज़हर काटता है ज़हर को
सोचकर लड़का भरने लगा अपनी रगों में ज़हर
उतरने लगा अंधेरी बावड़ी की एक एक सीढ़ियाँ
फिर गहरे अंधेरे जल में गुम हो गया बिगड़ा लड़का.
नही आई लौटकर
दी गयी पुकार..
सबको मिला कुछ ना कुछ
किसी को मुक्ति उत्पात से
किसी को संताप से
..बस एक माँ थी
 जिसने  खोया अपना माँ होना


                       बिगड़ा लड़का 2 

बिगड़े लड़के की मौत
ना था उत्सर्ग
ना था आत्मघात
ना थी काल की क्रूरता
वह एक महीन हत्या थी
बड़ों की बिगड़ी ज़िद और समझदारी का व्यूह
जिसे लड़का भेद नहीं पाया
बड़ी धूमधाम से  मनाया गया बिगड़े लड़के का श्राद
धूम जिसमे छुप गया लड़के  चेहरे पर करवट लेता दर्द
धाम जिसमे डब गया लड़के का रुदन
पीपल तले जुटाई गयी तमाम राशी
सुनाये गये गरूण पुरान
अद्भुत चमक थी
महापात्र कुमारों की आँखों में ना था आत्मघात और जिसे जीते जी वो मनाया ब्रह्म दिया श्वानों ने किया रोदन  प्रलाप गाये शोकगीत डूब  एक अदद कंधा जी भर पेट भर हँसने के लिये किसी का साथ
प्रेतों से मुक्ति की कशमकश में ही छूटें हो जिसके प्राण हनुमंत
गिद्धों ने खूब  बरसाया आशीष
कौऔ ने खूब गाये शोकगीत
श्वानों ने किया रोदन  प्रलाप
अद्भुत चमक थी
महापात्र कुमारों की आँखों में
अतृप्त आत्मा की मुक्ति के लिये
कराया गया ब्रह्म भोज दिया गया स्वर्ण दान
पंडितों ने प्रेत मुक्ति का किया सारा विधान
पर कोई नही सुझा पाया ऐसे प्रेत की मुक्ति का उपाय 
जिसे नही था अन्न का अभाव..
स्वर्ण की नही थी चाह..
जो चाहता था एक अदद कंधा
जी भर रोने के लिये
पेट भर हँसने के लिये किसी का साथ
कोई बताये उस प्रेत की मुक्ति का उपाय..
प्रेतों से मुक्ति की कशमकश में ही छूटें हो जिसके प्राण
                                           हनुमंत


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