क़ाफिये से बाहर ग़ज़लनुमा
मेरी आँख में तिल है वो मुझे बतला रहा है
नासूर अपनी आँख के देखिये झुठला रहा है
बदसूरत है सूरत, नही इतनी भी लेकिन
कुछ तो गंदे आईने हैं जो मुझे दिखला रहा है्
आह हद से बढ़कर , आग हो ना जाये कहीं
भीड़ को देकर झुनझुना इसलिए बहला रहा है
मेरे हलाल के दोजख पर मारकर ताने
हराम की अपनी जन्नत पर इठला रहा है
मेरी लंगोटी फाड़कर कर लिया परचम चुनावी
आकाश को पेरहन बताकर अब मुझे फुसला रहा है
घुपच लेता आँख अपनी अगर होता खुदा कोई
आप कहते हैं वो अपने तमाशे दिखला रहा है
जागने पे जो देखेगी तो हो जायेगी अंधी
ख्वाब ऐसी चौंध के क़ौम को दिखला रहा है
हनुमंत
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