ओ मेरे समय के नायक
ओ मेरे समय के नायक
मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
तुम धीर हो
ललित हो
उदात्त हो
हर खेल में निष्णात हो
प्रसन्न वदन हो
सुर पूजीत हो
अप्सरा का स्वप्न हो
यह और बात कोई ना देगा मेरा साथ पर में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
बेहद चमकीले बेहद भड़कीले
पास तुम्हारे सभी खिलोने
फिर क्यों ललचाते गुड्डे गुड़िया टूटे फूटे आधे पौने
सारे मारक संहारक शस्त्र तुम रखे सिरहाने
फिर निशस्त्र निडर क्यों लगते हैं तुम्हे डराने
ओ जादूगर
मारीच मायवी
तुम्हारी भव्य लक दक की जै हो जै हो
किंतु मैं तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ
भीषण शोर उठाता
वो रथ जिस पर तुम बढ़े आ रहे
भीम पठारों को भी तोड़ रहा है
पर देखो तो पीछे मुड़कर
वो लकीर खून की छोड़ रहा है
ओ धृतराष्ट्र
बंद करो यह आलिंगन
जो हड्डी हड्डी तोड़ रहा है
तुम जितने उजले हो
भीतर से उतने ही मैले हो
ओ छलिया मोहन मधुकर
चूमा तुमने जिन जिन जगहों पर
नील पड़ गये
तुम बेहद उँचा सुनते हो
उँचा कहते हो
देख नही पाते अपनी छाया से आगे
उस पर भीषण सज धज
जो बढ़ती जाती हर घटी पल
तिस पर बडे शूरामा कवि चिंतक
नाच रहे सब धिन तक धिन तक
मैं आश्वस्त नही हूँ कुछ कर पाउँगा
पर जहाँ जहाँ तुम को पाउँगा
दोहराउंगा दोहराउंगा
में तुम्हे सख़्त नापसंद करता हूँ...
..हनुमंत
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