5.30.2012

इस समय में

मेरा नहीं है
फिर भी मेरी छाती पर
पीपल की तरह उगा है मेरा समय  |
उसके धड़ के ऊपर
एक पहाड़ है पूरा
ब्योरौं ,महीन ब्योरौं, महीनतर ब्योरौं  का |
पहाड़ के नीचे धुकधुकाती धुक्धुकियाँ लापता है यहाँ
जो यहाँ दाखिल दर्ज  नहीं है
वो खारिज़ है यहाँ  |
इस समय के सीने में
दिल नहीं
धड़कता है सिर्फ सोना
बेशुमार और बेकार की लिजलिजी ख्वाहिशें दौडती है इसकी शिराओं में |
रीढ़ की जगह
समझौतों और चालाकियों का लचकदार मज़बूत गठजोड़ है |
एक विशाल दैत्य
लाशों पर पाँव धरते
चढता जाता है स्वर्ग की सीढियाँ
स्वर्ग जिसकी दिशा पाताल के ओर मुड़ती जाती है |
समय जिसमे
ज्यों ज्यों सिकुड़ता जाता है यथार्थ
त्यों त्यों बड़ी होती जाती है उसकी परछाई |
मैं इस समय से
माँगता हूँ
फेफड़े भर हवा
और स्वाद भर नमक |
मैं  जिंदा हूँ
इस समय में
तो इसलिए कि
मिट्टी में अभी भी सना है पसीना
और हवा में बची है नमी |
                                              हनुमंत

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