दादी के बाल
दादी के बाल
टेकरी के झुकते कंधों पर
झुकते बादल से मेरी दादी के बाल
मैं इन्द्रधनुष बनकर लिपटउंगा
इन बालों की छाती पर
टेसू की कई टोलियाँ नाची
इन बालों के गालो में
शिरीष ने अपना रंग घोला
इन बालों के कंधो में
केसर ने झूला झूला
इन बालों की आँखों में
कांस ने घूँघट खोला
कितनी ऋतुओं के चुम्बन से चहके बहके मेरी दादी के बाल
मैं गुलमोहर बन फूटूगा इनमे अबकी साल .....
इन बालों की गोदी में कितनी रातें बिखर गईं
इन बालों के आँचल में कितनी सुबहें निखर गईं
मुसकानें उलझा ली मूछों ने इनको राम किया
दही मथ रही मथनी में रस्सी का रूप जिया
कितना विष चन्दन कर गये मेरी दादी के बाल
मैं हल्दी अक्छ्त बन बिखरुंगा इनमें अबकी साल
कब अरहर को मर गया पाला
दीवाली में पिटा दिवाला
कब कब धान मवेशी चार गये
पूनम कर गयी मुंह काला
कब फसलें मोहर बन घर आईं
लक्ष्मी घुटना तोड़कर बैठ गयी
कब कोयल के गीत आम हो गये
अमावट घर में गमक गयी
कब मूँछे उठने से गर्दन गिर गयी
कब होली की अबीर आग को पानी कर गयी
ऐसे न जाने कितने प्रश्नों की खामोश गवाही देते मेरी दादी के बाल
मैं स्वर और शब्द गूथूंगा इन में अबकी साल.....
यूँ तो लोरी की लहरों में परीलोक से लगते है ये बाल
पर भीतर ही भीतर मथ रहे कई सवाल
आँगन में जो फैल रही रही है अमर बेल
क्या होगा आँगन की तुलसी का हाल
क्या चढ़ पायेगा फिर पुरवाई के कंधे
झिल्गी में पड़ा ,झिल्गी देह का झिल्गी मन
फिर कब फूटेगा अनार के दानो सा
सुनकर तुतले संबोधन
जो पक चुकी जिसकी जड़ मर चुकी
फिर भी छप्पर चढ़ी बेल से मेरी दादी के बाल
मैं मेहँदी बनकर रंग डालूँगा इनको अबकी साल....
हनुमंत
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