5.11.2012

दुःख


                      दुःख
 कह गए कवि अज्ञेय..
'दुःख मनुष्य को मांजता है'
उस औरत से मिले होते 
तो जान पाते कि
दुःख मनुष्य को जब मांजते ही चला जाता है
तो जर्जर कर देता है..|
दुःख के उलट सुख
मनुष्य के ऊपर कलई चढ़ा देता  है
और  कलई  जब चढ़ती चली  जाती है
तो धातु  ही गायब हो जाती  है
सिर्फ मुल्लमा रह जाता है  ..|
वैसे आग दोनों में होती है  
सुख की आग चौंधियाती ज्यादा है
दुःख की आग धुन्धुआती ज्यादा है  
वह धीरे धीरे जलाती है
राइ राइ रत्ती रत्ती
ऐसी कि अंत में मनुष्य  निचाट राख रह जाता है |
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दुःख तब सबसे नीच होता है
जब जलता है सुख की आग में |
सबसे घृणित होता है
जब  सम्मान समारोहों में विराजता है और  मानपत्रों में बदल जाता है  |
सबसे अशोभनीय होता है  
जब लिपटा होता है सुख के शव से  |

सबसे मारक होता है तब  
जब अपना नहीं अपनों का होता है दुःख |

सबसे सुन्दर होता है
जब करुणा की शिराओं से बहता
संहार और सृजन के शिखरों को छूता है |

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हम नहीं  करते
दुःख  करता है  हमारा चुनाव  
वह हमारे जन्म के बहुत पहले चला आता है
और बना रहता है हमारे बाद भी |

वह हममें  साँस लेता है इस तरह
जैसे अंतरिक्ष में साँस लेती हैं संभावनाएँ
या धरती के नीचे ज्वालामुखी |
सुख से भागने वाले तपस्वी भी
नहीं भाग पाए दुखों से
सुख की तरह उसे नहीं कह पाए माया |  
दुःख  धम्मन करता है हमारी धमनियों में
और जब थक जाता है
तो आँखों से बह निकलता है  |
दुःख का होना मनुष्य का होना है
जो दुखी नहीं हुआ वो अभी जन्मा ही नहीं |
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मुझमें नाचते हैं दुःख इस तरह
जैसे  धूप में फैली हथेली पर नाचते  हैं छाया के छल्ले
मैं उन्हें पकड़ नहीं पाता
और छोड़ भी नहीं सकता  |
मुझसे मिलना मेरे दुखो से मिलना है |
|
                                 हनुमंत 

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