4.25.2014

sagour (सागर)

सागर १ 
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सागर ... 
अब मै विदा लेता हूँ ...
हाँलाकि विदाई का अर्थ हमेशा जुदाई नहीं होता 
और तुम वैसे भी मेरे लिए एक शहर नहीं एक अहसास हो |
इसके पहले कि तुम्हे लिबास की तरह बदल पाता
तुम रूह में उतर चुके थे |
ना तुमसे मिलना मेरी मर्जी से हुआ , ना बिछड़ना मेरी मर्ज़ी है |
मर्ज़ी वैसे भी बन्दर की नहीं,
उस मदारी की होती है जिसके एक हाथ में डमरू और दूसरे में डंडा होता है |
अजब है कि नाचते हुये बन्दर तो दिखायी देते हैं,
लेकिन नचाता हुआ मदारी कहीं नज़र नहीं आता |

सागर २
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सागर ...
तुम पहाड़ो की गोद में बिलखते धूल सने बच्चे से लगे थे |
तुम्हारी धूल चन्दनवर्णी भले थी लेकिन चन्दन नहीं थी |
तुम्हारे आँसू ही थे जो जमा होते होते लाखा झील बन गये थे ,
आँसुओ की तरह इसका एक एक कतरा आज भी खारा है |
बारिश में नाममात्र की और उस पर भी खुली नालियों के चलते,
गटर जब मैदान,बाज़ार, सड़क से होता हुआ घरों में घुस जाता
तब शहर के हुक्कामों को जुतियाने का जी होता |
लेकिन यह समय की विडम्बना है
कि जो जुतियाने लायक हैं उनकी ही जय बोलनी पड़ती है ||
सागर ३
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सागर ...
रोज़ सुबह मै अपनी रूह से इल्लियों को खींचकर
परकोटा किनारे तालाब में डुबोता रहा
और रोज़ अँधेरे में वे वहाँ से निकलकर
मेरी रूह में वापस दाखिल होती रहीं |
रूह की तरह इल्लियाँ भी अमर हैं ..
वे मरती नहीं कुछ देर के लिए छिप जाती हैं |
रूह कराहती है , जब वे रूह को कुतरती हैं
लोग ताली पीटते हुये , उसे कला और कविता कहते हैं |||

सागर 4 ( शहर से बिछड़ना सपने से बिछड़ना है )
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परकोटा में एक किला था 
किले से लगा पानी था 
पानी में मछली थीं 
मछलियां ऐसे मचलती थीं
जैसे परदेस में घर की याद मचलती है |
किले के भीतर तोपें थीं
तोपों के मुँह से झरता हुआ बतरस था ..
आप लाख कतराओ
इस बतरस से भीगे बगैर बच नहीं सकते थे |
कीले की दीवार में ऊग आया झंखाड़ था
झंखाड़ के बीच चम्पे का एक पेड़ था ..
शहर दर शहर जिसकी गंध पीछा करती थी |
मै उसके पास से गुजरता
तो चम्पई फूल खिलखिलाकर बरस पड़ते |
वे फूल थे या जीवन की ऋचायें कह नहीं सकता ..
कहते है बोधि के लिये निकला राजकुमार
इनकी छाँह में जरा देर जो ठहरा तो कालिदास हो गया |
विदा के वक्त अँकवार भरने के लिए
मैंने उस चम्पे के पेड़ को बहुत तलाशा
पर वो नही दिखा...
राहों में बिछे हुये फूल भी नहीं दिखे ,
यहाँ तक की गंध भी नदारद थी |
मेरी हैरानी और परेशानी पर
किला पूरा जोर लगाकर चीखा ..
“ ‘चम्पे का पेड़’ सच्चाई नहीं सपना है”
तो क्या सागर से बिछड़ना
अपने सपने से भी बिछड़ना है ????
शहर जब सपना हो जाता है
बहुत रुलाता है ....||||||

सागर 5 (उप संहार )
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सागर की बोली
मानो पानी में भिगोकर बताशा जुबान पर रख लिया हो |
सागर के तोते
मानो खेत से निकलकर हरे बूटे आसमान में उड़ रहे हो
या कोई नीले आँचल में हरी गोट टांक दे |
सागर के लोग लुगाई यानी
नेकी नरमी और नादानी को गूंथकर सुन्दर इंसान बना दिये हों |
लेकिन मलबा उड़ाकर लाती हुई
ये जो ज़माने की आंधी छा रही है ,
मुझे डर है कि अगली दफे मै अकेला
इमारतों,टावरों और प्लास्टिक कचरे के नीचे दबा हुआ
अपना सागर ढूंढ रहा होऊंगा |
जिन्हें ज़मीन के नीचे दबा इतिहास खोजना था ..
वे तो अब जमीन के नीचे दबा सोना खोज रहे हैं |||||

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