4.25.2014

प्रमेय //हौसला //बसंत (spring )

प्रमेय 
++++ 

मेरी जड़े 
तुम्हारे भीतर तक 
उतर रही हैं
तुम्हारे पुष्प
मेरी फुनगियों पर
खिल रहे हैं

हम
उतने ही समीप है
जितनी अगल बगल दो आँखे
और दूर भी उतने ही
कि कभी एक दूसरे को देख नहीं पायें
मिल भी ना पायें चाहकर
फिर भी
जागें-सोयें -रोयें एक साथ

हम
शब्द में भीगे हुए बिम्ब
अलग - अलग होकर भी
अलगाना मुश्किल

हम
शायद कभी ना मिल सकें
किन्तु
यह भी सम्भव नही
कि कभी जुदा हो रहें ||||

२) हौसला
++++++++
मेरी बू
मेरी रंगत
मेरा रुतबा ना देख ,
कमीने मौसम में खिला
अदना फूल हूँ मै
देख तो बस मेरा हौसला देख ||


बसंत 
+++++
( 1)
समझदारों की बस्ती में दीवाने सा रहता हूँ |
मै टूटे पत्तों के माथे पर बसंत लिखता हूँ ||

(2) 
बसंत ...
तुम अगर मुझ तक आना चाहो
तो किसी डाकिये से पता मत पूछना
किसी सर्च इंजन में मत उलझना
मै गूगल मेप से भी बाहर हूँ
किसी शहर गाँव में मेरा ठिकाना ना मिलेगा |
किसी उदास मन में झाँकना
मै वहीँ हूँ ,
मै वहीं मिलूँगा |||

( 3)
‘बसंत आया है‘
बंसत के आने की खबर कलेंडर से मिली
ना गंध आयी ,ना रंग दिखे. ना मन बौराया
ना तितली उड़ी, ना भौरें गुनगुनाये
ना बादल गुलाबी हुए, ना हवा शराबी हुई
मैंने भी बसंत से दरवाजे पर ही कह दिया
‘जा मै तुझे पहचानता ही नहीं’

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