3.08.2012

सीतारेखा

सीतारेखा


                              
                                 
सीते
 तुम्हे महसूस करता हूँ हर वक़्त
 मगर माफ़ करना
 मैं तुम्हे मोहब्बत कर नही सकता
  अपनी बेटियों को दे नही सकता
  आशीष  तुम सा होने का
 आशीष
 लाख अनबन हो पत्नी से
 मगर नही दे सकता बद्दुआ
 तुम सा होने की
 मॉं को देखकर होता रहा यही अफ़सोस
क्यों नही लाँघ पायी वह तुम्हारी खींची सीतरेखा.
.तुम्हे जब जब देखा
लगा तुम छाया थी अपने राम की.
.और अंत में वो भी नही रहने दी गयी.
.पृथ्वी ने निकली तुम
 समा गयी उसी पृथ्वी में
..हालाँकि कसूर इसमे नही था कोई तुम्हारा
 कब होना चाहा था तुम ने वह
 जो तुम बना दी गयी
..हो सकता है तुमने तोड़ने चाहे हो वे फ्रेम
 जिनमे तुम आज भी जड़ी हो
 हो सकता है मुझ तक ना पहुँची हो तुम्हारी सिसकियाँ
तुम्हारी चीख
 जो पहुँचा है तुम से मुझ तक
 वो बस इतना  सा है
 कि औरत होना इस दुनिया में एक गुनाह है
 जिसकी सज़ा या तो चिता है या बनवास
तुम्हे लेने होंगे नये जन्म
जो आज़ाद करना चाहो..
औरत जात को
 इस  महिमामंडित  गाली से  



                                                                   
                            
                          हनुमंत

                                  

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