सीतारेखा
सीते
तुम्हे महसूस करता हूँ हर वक़्त
मगर माफ़ करना
मैं तुम्हे मोहब्बत कर नही सकता
अपनी बेटियों को दे नही सकता
आशीष तुम सा होने का
आशीष
लाख अनबन हो पत्नी से
मगर नही दे सकता बद्दुआ
तुम सा होने की
मॉं को देखकर होता रहा यही अफ़सोस
क्यों नही लाँघ पायी वह तुम्हारी खींची सीतरेखा.
.तुम्हे जब जब देखा
लगा तुम छाया थी अपने राम की.
.और अंत में वो भी नही रहने दी गयी.
.पृथ्वी ने निकली तुम
समा गयी उसी पृथ्वी में
..हालाँकि कसूर इसमे नही था कोई तुम्हारा
कब होना चाहा था तुम ने वह
जो तुम बना दी गयी
..हो सकता है तुमने तोड़ने चाहे हो वे फ्रेम
जिनमे तुम आज भी जड़ी हो
हो सकता है मुझ तक ना पहुँची हो तुम्हारी सिसकियाँ
तुम्हारी चीख
जो पहुँचा है तुम से मुझ तक
वो बस इतना सा है
कि औरत होना इस दुनिया में एक गुनाह है
जिसकी सज़ा या तो चिता है या बनवास
तुम्हे लेने होंगे नये जन्म
जो आज़ाद करना चाहो..
औरत जात को
इस महिमामंडित गाली से
हनुमंत
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