4.27.2012

तुम जीवन का अमर राग


                  तुम जीवन का अमर राग
[ प्रो.आदित्य प्रताप सिंह  हिंदी के उन विरलतम रचनाकारों में हैं  जो  हिंदी के बाहर भी जाने और माने जाते हैं | 
उनके हायकू जापान ,कोरिया सहित यूरोपीय देशों में भी अपनी जगह रखते हैं | रचना की आग ,सूरज आवाज़ देता है , माचिस की आँख  उनकी रचनात्मकता का आख्यान हैं| प्राची औ प्रतीच का साधक  उन पर अभिनन्दन ग्रन्थ है | यह कविता उनकी उपस्थिति में उपलब्ध  जीवन रस का शेष  रह गया स्वाद है ]


वो चला गया तो 
पता चला
जाना कैसा होता है लाफिंग बुद्धा का |
               उत्तुंग अभिमान सी विकसी
               नाक उसकी
               वो उठी उठी
               सूक्ष्म बेध को आतुर
                            “माचिस की आँख
              छोटी मगर पैनी पैनी |
ज्ञान समुद्र में
डोलता फिरता
वह कद्दावर सुदर्शन सुमेरु
विलग गया बैरागी हँसा सा |
                       “ प्राची औ प्रतीचि
            के  संधि स्थल पर
            वह था
                      “सूरज आवाज़ देता
           लुटता ज्ञान रश्मियाँ
           हिंदी हायकू की |
           वो जितना भूमिगत था
                      “रचना की आग
           थी उतनी ही  नभ चुम्बी |
चिर अलाव सी धधकती
मुहावरेदार गप्पें |
भादों की रात आसमान में
हँसती तारों की तलैया सी
बतकही |
        काल  को कँपाती  
        दिल खोल हँसी
        जैसे मकई के दाने
        उछल उछल खिलते  हो
        भड़भूजे के गर्म तवे पर |
हाय माटी से विकसा माटी हो गया  सब |
  ओ मेरे तुम
  मेरे मन के सिरजनहार
  वो कुम्हार सी थाप तुम्हारी याद रहेगी  
  तुम ना होगे तो क्या?
  साथ , तुम्हारी बात रहेगी |
  तुम रमते हो हर आशावादी मन में
  हर तानाशाही के विरुद्ध
  हर नव साम्यवादी जन में |
              नव कोपल जब जब निकसेगी
              तुम ही निकसोगे
              नव कोयल जब जब गायेगी
              तुम ही गाओगे
 तुम जीवन का अमर राग
 तुम को ही गायेगें
तुम को ही पायेगें
जीवन की हर गति में |
                                                           हनुमंत

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