नपुंसक
मेरा गुस्सा नपुंसक हो चुका है
तेज अपना खो चुका है
काटते ही होंठ अपने
नगो के आगे झुका है..
मेरा गुस्सा नपुंसक हो चुका है
मेरगुस्सा
...काग़ज़ पर गिरता है
बूँद काले खून की
बस बातें किया करता है
क्रांति की जुनून की
बातूनी बनके रह गया है
कागज़ी शेर सा ढह गया है
पौरुष अफ़ीम खाकर सो चुका है.
मेरा गुस्सा नपुंसक हो चुका है
..मेरा गुस्सा..
.. आँखो में है खून उतरा
पर हाथ बाँधे हुए है
खग कीवेदना भी
.दो किनारो पर बसा है
मन दो पाटो में फँसा है
संकल्प धारा में विसरजित हो चुका है
मेरा गुस्सा नपुंसक हो चुका है
हनुमंत
बहुत बढ़िया भाई साहब
ReplyDeletejabardast sir
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