जुएँ निकालती
बच्ची
माँ के जुएँ
निकालती नन्हीं बच्ची में
आकार लेने
लगती है पूरी माँ
निर्वेद पलक
मूंदे
माँ के भीतर
उतरने लगती है नन्हीं बच्ची |
बालों के गुंजलक
में
नन्हीं बच्ची
तलाशती है जुएँ
जैसे गहरे गोते
में मछुहारे तलाशते हैं मोती
ऐसे ही , महल की
भूल भुलैया में
फिर चुटकी में दबाकर
नाखूनों पर
मसलती है जुएँ
जैसे परी कथाओं
में
नन्ही परी मारती
है बलशाली दैत्य|
कोई सिकंदर भी
क्या खुश होता
दुनिया पाकर,
जुएँ पाकर जितना खुश होती है नन्ही बच्ची
फिर धीमे धीमे
सुनाती है बड़े बड़े किस्से
सपनों के ताल
में टपकते हैं फूल चंपा के
टप टप टपाटप |
माँ भरती जाती
है हुँकारी
गहरे पानी में
मूंगों के पहाड़ों बीच
लुका छिपी खेलती
हैं सोन मछरियाँ
छप छप छपा छप |
जुएँ तलाशती
नन्ही बच्ची पर
रचा जा सकता था
सबसे सुन्दर चित्र
यदि रंगों के
पास होते शब्द
सिरजा जा सकता
था सबसे सुंदर संगीत
यदि सुरों के
पास होते रंग
कही जा सकती थी
सबसे सुंदर
कविता
यदि शब्द ले
पाते आकार |
बहरहाल तब तक मासूस न हो श्रीमान
याद करें मंजीत
बाबा का कोई चित्र
भीतर से उठता
हुआ सुने
कुमार गंधर्व का
अनहद गान
देखते हुए ,
माँ के जुएँ तलाशती नन्ही बच्ची ||
हनुमंत
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