1.07.2013

अँधेरा ...

अँधेरे से मुझे डर नहीं लगता ...
अँधेरा मुझे   दोस्त सा लगता है ...
शिव सा सिद्ध औघड़
अमृत हो या विष सब को स्वीकारता
उसे अस्वीकार करना आता ही नहीं |

विनम्र इतना कि एक छोटी तीली की कांपती लौ के लिए
दूर कोने में सिमट जाता है |
ऐसा नहीं कि उजाले से कोई ऐतराज है मुझे
पर जहाँ वो मुझे पिता के ऊँचे कंधो सा लगता है
वहीँ अँधेरा... माँ की कोख सा |

......जब थक जाता हूँ
अँधेरे को मोटे कम्बल सा लपेट लेता हूँ चारों ओर
जब कुछ नहीं था अँधेरा था
जब कुछ नहीं होगा अँधेरा होगा ....
इस बीच जो है..वो  एक स्वप्न है चमकीले पंखो का  .....|||||
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(अँधेरा : २ )
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अँधेरा  गुनाहों के लिए नाहक बदनाम है
क्योंकि  गुनाह तो उजाले में भी किये जाते है |
वो धूर्त अय्यार जो कहता है
कि "अँधेरा कायम रहे "....
लोगों को सिर्फ गुमराह करता है |
सच तो ये कि बुराई  की सल्तनत ..
अँधेरे की वजह से नहीं बल्कि अंधेपन की वजह से कायम रहती है |
तभी तो कोहराम के बीच सरेआम रजिया को गुंडे जिबह कर देते है |
मुनादी पिट रही होती है और रमुआ लुट जाता है |
जुर्म हो या गुनाह वे अँधेरे में नहीं
अक्सर उजाले की परछाइयों में पनाह लेते हैं ||||     (    चित्र :ग्रेसिला बेलो )                                                    





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