पिता
चाहकर भी नहीं लिख सका कविता तुम पर
तुम कविता के नहीं व्याकरण के विषय
हो...
संज्ञा सर्वनाम से संपन्न
छंदबद्ध अनुशासन से शासित |
मेरी स्मृतियों में नहीं है
तुम्हारी उँगलियाँ ,तुम्हारे कन्धे ,तुम्हारी गोद
तुम्हारी उँगलियाँ ,तुम्हारे कन्धे ,तुम्हारी गोद
तुम्हारी दहाड़ती आवाज़ और घूरती आँखों
पीछा करती हैं आज भी...
तुम्हे देखता हूँ
तो रेगिस्तान के ढूह याद आते हैं
अपनी शुष्कता में छीजते
अपने ही भार से अभिशप्त....
किन्तु उनके पाताल में भी तो कोई नमी छुपी होगी
कुछ खारा सा रिसता रहता होगा चुपचाप
पर कौन है जो धँस पाता
हैं उस गहराई तक
किसके पास है वे आँखे जो देख पाती है
नर्गिस का नूर |
तुम हलवाहे की तरह
तोड़ते रहे है परत,
पलटते रहे बंजर की काया
पलटते रहे बंजर की काया
जोत को बनाते रहे खेत
पर मैं अभागा... खेत जितना भी
नहीं हो पाया कृतज्ञ..|
तुम मुझमे अपने छूटे हुये सपने देखते
रहे
और मैं स्वयं में अपने होने को ढूंढता
रहा....
आज उम्र के इस मोड़ पर
पिता बनने के बाद पाता हूँ
कि तुम ही रिसते रहे हो मेरे
भीतर..
बच्चों के बड़े होने के साथ
बड़ा होता गया भीतर का पिता भी
आज इसी बिना पर कहता हूँ
कि पिता होकर ही जाना जा सकता है
पिता को...
तुम आज भी जब सिर पर हाथ रखते हो
तो खुद आसमान छाते की तरह खुल
जाता है ..
यूँ तो तुम्हारे खिलाफ शिकायतों कि लंबी
फेरिस्त है
पर ईमान की अदालत में आता हूँ
तो स्वयम को कठघरे में खड़ा
पाता हूँ
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