1.01.2017

किताब // मैंने गांधी को मार डाला

किताब 
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लो,
अपनी किताब तुम्हे सौंपता हूँ 

चाहूँगा कि इसे समझो-सराहो

लेकिन रौशनी कम हो
तो इसे जलाकर उजाला कर सकते हो

चूल्हे कीआंच मद्धम हो तो
बेशक इसे सुलगा सकते हो

जरूरत हो तो
इससे अपने आंसू पोछ सकते हो

बालक की विष्ठा साफ़ करने के
काम भी आयी
तो किताब धन्य हुई समझो

किताब चाहे मुझपे नाज़िल हुई हो
या तुम पर
बस इतना याद रखना ,
किताब
आदमी के लिए होती है
आदमी किसी किताब के
लिए नहीं होता ||||


मैंने गांधी को मार डाला
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हाँ 
मैंने गांधी को मार डाला |
हम तीन थे
तीनो तीन दिशाओं में
एक दूसरे की ओर पीठ किये

एकसोचता था
एक बोलता था
एक करता था

हमारा जीवन छलछद्म सेभरा था
मगर हमें इसकी आदत हो चुकी थी
और हम सुअर की तरह सुखी और संतुष्ट थे |

गांधी
जब हमें मिलता ..
जहाँ मिलता
टोकता
और शर्मिंदा होने तक
टोकता ही चला जाता ..|

उसका कहना था
हमे एक होना चाहिए
वो हमे घुमाकर
एक दूसरे की तरफ मुंह कर खड़ा करने लगता
हम एक दूसरे की आँखों में अपनी शक्ल देखते
और स्वयं को गंदा और घिनौना पाकर वितृष्णा से भर जाते |

जब
गांधी की
गांधीगिरी
हमारी बर्दाश्त से बाहर हो गयी
हम तीनो ने मिलकर गांधी को मार डाला |

शक से बचने के लिए
हम उसकी शवयात्रा में सबसे आगे रहे
उसके नारे लगाए
चौराहों पर
उसकी मूर्ती खड़ी कर दी
दफ्तर दुकानों में उसकी तस्वीर लगा दी |
और इन मूर्तियों,तस्वीरों के पीछे खुद को छिपा लिया |

आज भी
जब कोई
गांधीगिरी पर
कुछ ज्यादा ही उतारू हो जाता है ...
हम उसका वध कर
गांधी की
मूर्तियों और तस्वीरों के पीछे जा छिपते हैं ||

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