1.01.2017

तीन कवितायें और स्मृति प्रलाप

१)

अभी तक घर में
सुबह नहीं हुई
अभी तक
बीमार स्त्री
खाट से नीचे नहीं उतरी |||

२)

वो
जब
प्रेम से ऊब जाता है
व्यभिचार करने लगता है
व्याभिचार से ऊबता है
तो
कविता में डूब जाता है
कविता से ऊबता है
तो ध्यान में उतर जाता है
ध्यान से ऊबता है तो
आत्महत्या या मृत्यु के बारे में सोचने लगता है |
इस विचार से उसे कभी ऊब नहीं हुई,
एक यही है
जिसे उसने अब तक चखा नहीं है ||||

३)

वे
पूछते है
तुम
अपनी रचनाओं के पीछे
अपना नाम क्यों नही लगाते ?
मै पलटकर पूछता हूँ
क्या हर बाप के लिए जरूरी है
अपने बेटों केगले में
अपने नाम का पट्टा डालना ? 


स्मृति : प्रलाप
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1) 
किसी अंग में नहीं
कि
उसे काटकर फेंक दो,
स्मृति का नासूर
समूचे जीवन में पसरा होता है |
यह वो नदी है
जो चहल -पहल में
विलुप्त हो जाती है
लेकिन एकांत की छाया में
सहसा प्रकट होकर
हाहाकार से भर देती है |
उसकी बाढ़ की गाद में देखो
कितना कुछ सडांध मार रहा है
खून -आंसू -चीख-बेबसी |
पशुओ
के वर्तमान का स्वर्ग,
स्मृति के अभिशाप से मुक्त है |||||

2)
स्मृति के
सुसुप्त ज्वालामुखी के उपर बैठी
औरत कीआँख
हँसते समय बंद है |
उसे चाहिये कि
वो अपने कान भी बंद कर ले
सुसुप्त ज्वालामुखी अक्सर
सबसे खुश और असावधान समय में ही फटते हैं ||

३)
स्मृति 
की अंगुली थाम ,
मै
अँधेरी सुरंग में घुसता हूँ
और
रोशनी भरे
दरवाजे के मुहाने पर
जा पहुँचता हूँ ||

४)
स्मृति
यानी एक केलिड्स्कोप
पुराने फेंके गये
कांच के टुकड़े भी
एक अचम्भा
एक सम्मोहन रचते हैं |||

५)
थकान का पसरा जंगल
मावस की बदरी रात
कितनी सुन्दर दिखती है
स्मृति की
जुगनू बारात
नींद से कहो
अभी थोड़ा इंतज़ार करे ||||

६)
स्मृति
एक अजगर
रोज अपनी जकड़ में लेकर
पीस डालता है
रात निगल लेता है
सुबह उगल देता है ||

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