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मेरी जड़े ज्यों ज्यों अँधेरे में उतरती
गयी ,
मेरी आत्मा में उजाला त्यों त्यों उतरता
गया |
मुसीबतें और मज़बूरियाँ ने मेरे छिलके को
कड़वा बनाती गयी |
लेकिन मेरे रस में धरती का नमक और आकाश
की मिठास घुलती गयी |
छाले मेरे थे लेकिन उनमें टीस ज़माने की थी |
मेरे खाने-सोने, जीने- मरने में एक
कोहराम घुसपैठ कर चुका था |
मै परेशान था कि इस अजाब का मातम मनाऊ या
जश्न
तभी जलता लुकाठा लिये हुए एक फकीर मुझसे
टकराया
और बोला
तुम अपना घर फूँक चुके हो ...
“अब चलो हमारे साथ” ......|||
(painting:sudhir patvardhan courtesy google)
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