5.26.2013

कृतघ्न.// कविता

कृतघ्न.
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खलिहान में राशि को नमन करते हुए
नपाई के पहले
मजूरों ने एक कुरई अनाज 
धरती को शीश झुकाकर
उसके आँचल में उडेल दिया गया |
माँ ने रसोई पकाई
और पहली छोटी लोई
आग के मुँह में डालकर
आग को प्रणाम किया |
पिता ने थाल से अग्रासन
गाय के लिये निकाला
और मन ही मन कृतज्ञ हुये ..
जिनके वंशज ने भार ढोए ,हल चलाये
अपने रक्त और रस से मनुष्य को जीवन दिया |
मैंने पूरी कृतघ्नता से सब कुछ  जल्दी जल्दी भकोसा
और सारी दोपहर करवट लेते हुए
सर्वेंट क्वार्टर के बारे में सोचता रहा
जो कार गेरिज के आड़े आ रहा था |||


कविता
बहुत दिनों बाद उससे मिला
तो पाया कि
लालिमा तो बढ़ी थी ..
लेकिन इधर उधर चर्बी के टायर भी चढ़ गये थे |
चालू भाषा में कहूँ तो  कविता मुटा  गयी थी |
उसने ..
फूल / चिड़िया /नदी /बारिश /शाम ...
जैसा कुछ कहा और उसका दम फूल गया  |
पहाड़ अभी शुरू की किया था कि हाँफकर बैठ गयी |
मैंने कहा..
कुछ दिन जंगल /खेत /खलिहान घूम आओ
किसान/ मजूर /आदिवासी संग
पसीना बहाओ और चर्बी गलाओ
सेहत लौट आयेगी  और सब ठीक हो जायेगा ||
उसने  पलटकर मेरी तोंद पर ताना मारती नज़र डाली..
मैने झेंपते हुये कहा,,,
चिंता मत करो तुम्हारे साथ मै भी पसीना बहाऊंगा

और पन्ने पलट दिये|||
( चित्र गूगल साभार )

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