9.23.2013

मन पानी

मन पानी
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मन दर्पण नहीं पानी है |
पानी की आँख में  सब दिखता है आरपार |
पर जैसे ही उतरता है कोई उसके भीतर
एक मटमैली हलचल के सिवाय कुछ नहीं रहता वहाँ |

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एक कंकड़ मारेगा कोई
या हवा का एक झोंका गुजरेगा करीब से
और एक हिलोर सब कुछ हिला देगी
सब कुछ कांपने लगेगा ...सब धुंधला ... सब कुरूप |
दर्पण होता तो साफ़ कर लेते
लेकिन पानी के साथ हर कोशिश एक खलल है ...
कोई उपाय नही
बेचैन इंतज़ार के साथ उसके किनारे बैठे रहने के सिवाय | *********************************************************************
पानी के किनारे चुपचाप बैठना...
और सितारों की सतर के बीच चाँद का सफ़र देखना ....|
मै तुम और चाँद ...
मन पानी में तीनो हमसफर हुये ...
और बुद्धू से बुद्ध हो गये ...
सुजाता से कहो अपनी खीर बस्ती में बाँट दे |||

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